अव्यक्त (सूक्ष्म) धारणा:_
15.
जब योगी इस मनुष्य लोक को छोड़ना चाहे, तब_
अव्यक्त धारणा:_
*देश काल में मन को न लगावे। सुख पूर्वक स्थिर आसान से बैठ कर प्राणों को जीतकर मन से इंद्रियों का संयम करें।*
*तद अंतर अपनी निर्मल बुद्धि से मन को नियमित करके मन के साथ बुद्धि को क्षेत्रज्ञ में और क्षेत्रज्ञ को अंतरात्मा में लीन कर दे। फिर अंतर आत्मा को परमात्मा में लीन कर के धीर पुरुष उस परम शांति अवस्था में स्थित हो जाए। फिर उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता।*
तुरीय:_
*इस अवस्था में सत्व गुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुण तो बात ही क्या है। अहंकार महतत्व और प्रकृति का भी वहां अस्तित्व नहीं है। उस स्थिति में जब देवताओं के नियामक काल की भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन देने वाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं?*
परम पद:_
*योगी लोग "यह नहीं" "यह नहीं"_ इस प्रकार परमात्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके संबंधी पदार्थों में आत्म बुद्धि का त्याग करके हृदय के द्वारा पद_ पद पर भगवान के जिस परम पूज्य स्वरूप का आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेम से परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान विष्णु का परम पद है_ इस विषय में समस्त शास्त्रों की सम्मति हैं।*
षट चक्र भेदन:_
*ज्ञान दृष्टि केबल से जिसके चित्र की वासना नष्ट हो गई है उस ब्राह्मण हिस्ट्री योगी को इस प्रकार अपने शरीर का त्याग करना चाहिए पहले ऐडी से अपने खुदा को दबाकर फिर हो जाए और तब बिना घबराहट के कारण वायु को षट्चक्र वेतन की रीति से ऊपर ले जाए*
*मनस्वी योगी को चाहिए की नाभि चक्र मणिपुर में स्थित वायु को प्रदेश चक्र अनाहत में वहां से उदान वायु के द्वारा वक्षस्थल के ऊपर विशुद्ध चक्र में फिर उसको धीरे-धीरे तालु मॉल में विशुद्ध चक्र के अग्रभाग में चढ़ा दे *
*तदनंतर दो आंख दो कान दो नासाछिद्र और मुख इन सातों छिद्रों को रोककर उस तालु मूल में स्थित वायु को भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ले जाए। यदि किसी लोक में जाने की इच्छा ना हो तो आधी घड़ी तक उस वायु को वही रोक कर लक्ष्य के साथ उसे सहस्रार में ले जाकर परमात्मा में स्थित हो जाए। इसके बाद ब्रह्मरंध्र का भेदन करके शरीर इंद्रयआदि को छोड़ दें।*
परलोक गमन:_
*यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रह्मलोक में जाऊं आठों सिद्धियां प्राप्त करके आकाश चारी सिद्धओ के साथ विहार करूं अथवा त्रिगुणमय ब्रह्मांड के किसी भी प्रदेश में विचरण करूं, तो उसे मन और इंद्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिए।*
निष्कर्ष:_
संसार चक्कर में पड़े हुए मनुष्य के लिए जिस साधन के द्वारा उसे भगवान श्री कृष्ण की अनन्य प्रेम मई भक्ति प्राप्त हो जाए उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है*
*भगवान ब्रह्मा ने एकाग्र चित्त से सारे वेदों का तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धि से यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान श्री कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम प्राप्त हो वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है*
*समस्त चराचर प्राणियों में उनके आत्मा रूप से भगवान श्री कृष्ण ही लक्षित होते हैं क्योंकि यह बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान कराने वाले लक्षण है ,वह इन सब के साक्षी एकमात्र दृष्टा है ।इसलिए मनुष्य को चाहिए कि सब समय और सभी स्थितियों में अपनी संपूर्ण शक्ति से भगवान श्री हरि का ही श्रवण कीर्तन और स्मरण करें*
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